हल्दी की पीताम्बर किस्म की खेती से कमाये लाखो -
लेखक- मनीष कुमार मीणा, कृषि विशेषज्ञ , AAO और दुर्गा संकर मीना , तकनीकी सहायक (ARS,Mandir, Jodhpur)
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(Turmeric cultivation ) आज के समय में हल्दी की खेती से किसानो द्वारा अच्छा मुनापाकमाया जा रहा हे l राजस्थान के झालावाड़ जिले में हल्दी की खेती की अपार संभावनाएं है । हल्दी Turmeric भारत की एक महत्वपूर्ण मसाले वाली फसल है| हल्दी की खेती आँध्रप्रदेश, अधिक की जाती है| मसाले के रूप में हल्दी खाद्य पदार्थों का स्वाद बढ़ाने के साथ-साथ उनको अपने रंग से आकर्षक बनाती है| जिसका मुख्य उपयोग मसाले के रूप में किया जाता है| आयुर्वेद मे हल्दी का उपयोग कई प्रकार की दवाओं को बनाने में करते हैं| हल्दी की गुणवत्ता का आधार इसमें पाये जाने वाले रंगीन पदार्थ “क्युरक्यूमिन” (2.6 से 9.3 प्रतिशत) व वाष्पशील तेल (3.5 प्रतिशत) की मात्रा है धार्मिक उत्सवों व पूजा-पाठ आदि कार्यक्रमों में एक पवित्र वस्तु के रूप में उपयोग होता है|
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जलवायु
हल्दी की फसल के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है| हल्दी को हल्की छाया में भी सफलतापूर्वक उगा सकते हैं| जिन क्षेत्रों मे औसत वार्षिक वर्षा 225 से 250 सेंटीमीटर तक होती है, वहां पर हल्दी की फसल को बिना सिंचाई के सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है|
भूमि का चुनाव
हल्दी की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में कि जा सकती हैं, परंतु जल निकास अच्छा होना चाहिए| इसकी खेती के लिए पीएच 5 से 7.5 होना चाहिए| इसके के लिए दोमट, जलोढ़, मिट्टी, जिसमें जीवांश की मात्रा अधिक हो, वह इसके लिए अति उत्तम है| पानी भरी मिट्टी इसके लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त होती है|
खेत की तैयारी
हल्दी की फसल के लिए पहली जुताई मिट्टी पलट हल से करने के उपरान्त 2 से 3 जुताइयाँ कल्टी वेटर या देशी हल से करके पाटा लगाकर मिट्टी भुरभुरी कर लेना चाहिए| जीवांश कार्बन युक्त एवं भुरभुरी मिट्टी में गाँठों की संख्या एवं आकार दोनों में वृद्धि होती है|जीवांश कार्बन का स्तर बनाये रखने के लिए अन्तिम जुताई के समय 30 से 35 टन भलीभाँति सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देना चाहिए|
उन्नत किस्में- पालम पिताम्बर, पालम लालिमा, राजेन्द्र सोनियाहजैसे- सुवर्णा, सुरोमा, सुगना, केसरी, रश्मि, रोमा,
बुआई का समय
जलवायु, किस्म एवं बीजू सामग्री के अनुसार हल्दी की बुआई 15 अप्रैल से 15 जुलाई तक की जा सकती है| अगेती किस्मों की बुआई 15 अप्रैल से 15 मई तक तथा मध्यम किस्मों की बुआई 15 अप्रैल से 30 जून तक और पछेती किस्मों की बुआई 15 जून से 15 जुलाई तक अवश्य कर देनी चाहिए|
बीज दर
प्रति ईकाई क्षेत्र आवश्यक बीज की मात्रा कन्दों के आकार पर निर्भर करती है| मुख्य रूप से स्वस्थ व रोगमुक्त मातृ कन्द एवं प्राथमिक प्रकन्दों को ही बीज के रूप में प्रयोग करना चाहिए| बोआई के समय प्रत्येक प्रकन्दों में 2 से 3 सुविकसित आंख अवश्य होनी चाहिए| सामान्यत: कन्द के आकार व वजन के अनुसार 17 से 23 क्विंटल कंद प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है|
कंदों का उपचार
हल्दी की बोआई के पूर्व कंदों को फंफूदीनाशक इंडोफिल एम- 45 की 2.5 ग्राम अथवा कारबेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोलकर उपचारित करते है| घोल में कन्दों को 60 मिनट डुबोकर रखने के बाद छाया में सुखाकर 24 घण्टे के बाद बुआई करते है|
बुवाई की विधि
हल्दी को तीन प्रकार से लगाया जा सकता है| समतल भूमि में, मेढ़ों पर और ऊँची उठी हुई क्यारियों में बलुई दोमट मिट्टी में हल्दी को समतल भूमि में लगा सकते हैं, लेकिन मध्यम व भारी भूमि में बीजाई सदैव मेढ़ों पर एवं उठी हुई क्यारियों में ही करनी चाहिए| बीजाई सदैव पंक्तियों में करें, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से 40 सेंटीमीटर एवं पंक्तियों में कंद से कंद की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर रखनी चाहिए| बीजाई के लिए सदैव स्वस्थ एवं रोग रहित कंद छांटना चाहिए| कंद लगाते समय विशेष ध्यान रखने की बात है कि कंद की आँखें ऊपर की तरफ हों तथा कंद को 4 से 5 सेंटीमीटर की गहराई पर लगाकर मिट्टी से ढक देना चाहिए|
मल्चिंग या पलवार लगाना
फसल की बुआई के तुरन्त बाद पलवार या मल्चिंग लगाना लाभदायक होता है| पलवार के लिए 150 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से धान का पुआल या सरसों के डण्ठल उपयुक्त होते है| पलवार से भूमि में नमी अधिक समय तक बनी रहती है, फसल में जमाव भी अच्छी तरह से होता है तथा खरपतवार भी रूक जाते हैं व पलवार में ली गयी सामग्री भूमि में मिला देने पर जीवांश की मात्रा भी बढ़ जाती है, जिससे उसकी उर्वराशक्ति भी बनी रहती है|
खाद एवं उर्वरक
हल्दी की फसल अन्य फसलों की अपेक्षा भूमि से अधिक पोषक तत्वो को ग्रहण करती है| अच्छी उपज में जीवांश कार्बन के महत्व को देखते हुए 30 से 35 टन प्रति हेक्टेयर गोबर या कम्पोस्ट की सड़ी हुई खाद अन्तिम जुताई के समय मिला देना चाहिए| रासायनिक खाद के रूप में प्रति हेक्टेयर 120 से 150 किलोग्राम नत्रजन 80 किलोग्राम फास्फोरस तथा 80 किलोग्राम पोटाश की आवश्यकता होती है|
नत्रजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा पंक्ति के दोनों तरफ बीज (कंद) से 5 सेंटीमीटर दूर तथा 10 सेंटीमीटर गहराई में डालना चाहिए| नत्रजन की शेष आधी मात्रा दो बार भाग में खड़ी फसल में प्रथम बार बोआई से 35 से 45 दिन एवं द्वितीय बार 75 से 90 दिन पर पंक्ति के बीच बुरकाव के रूप में डालना चाहिए| नाइट्रोजन उर्वरक के बुरकाव के समय ध्यान रखें कि खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए|
सिंचाई एवं जल निकास
हल्दी की फसल को पर्याप्त सिंचाई की आवश्यकता होती है| मिट्टी की किस्म, जलवायु, भूमि की संरचना, वर्षा एवं पलवार के अनुसार 10 से 20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई की जाती है| प्रकन्दों के जमाव व वृद्धि-विकास के समय भूमि को नम रखना आवश्यक है| उचित जल निकास फसल के लिए आवश्यक है| इसके लिए खेत के ढाल की दिशा में 50 सेंटीमीटर चौड़ी तथा 60 सेंटीमीटर गहरी खाई बना देना चाहिए, जिससे अवांछित जल खेत से बाहर निकल जाय| वर्षा के समय खेत से जल निकास अत्यंत आवश्यक है|
खरपतवार नियन्त्रण- सामान्य वृद्धि को बनाये रखने के लिए 2 बार निराई-गुडाई करके खरपतवारों का नियंत्रित कर पौध पर मिट्टी चढ़ा देते है| रासायनिक विधि से नियंत्रिण करने के लिए फ्लुक्लोरालिन 1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के छिड़काव से एक वर्षीय घास व चौड़ी पत्तियों वाले खरपतवारों का सफलतापूर्वक नियन्त्रण किया जा सकता है|
रोग एवं रोकथाम
पत्ती धब्बे- इस बीमारी से ग्रसित पौधों की पत्तियों व कभी-कभी पर्ण पर भी धब्बे बन जाते हैं| इस रोग की उग्र अवस्था में सभी पत्तियाँ सूख जाती हैं और पूरी फसल जली हुई सी दिखाई देने लगती हैं|
रोकथाम- इस बीमारी के लक्षण दिखाई देने से पहले अगस्त माह में 1.0 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण या 2 प्रतिशत केप्टान या डाइथेन जेड-78 (0.2 से 0.3 प्रतिशत) के छिड़काव से नियन्त्रण किया जा सकता है|
प्रकंद गलन- यह रोग मिट्टी एवं प्रकंद जनित हैं| पत्तियों का सूखना पहले किनारों पर शुरू होता है, जो बाद में पूरी पत्ती को घेर लेता है, रोग बढ़कर प्रकंदो पर आक्रमण करता है, जिससे उनका रंग पहले चमकीला हल्के संतरे से बदलकर भूरा हो जाता है, तत्पश्चात् प्रकंद नरम होकर गलना शुरू हो जाता है|
रोकथाम- इस रोग का नियन्त्रण स्वस्थ प्रकंद एवं उपयुक्त कवकनाशी से उपचारित करते हैं और डाइथेन एम- 45 (0.2 प्रतिशत) का घोल बनाकर मिट्टी में डालते हैं|
पत्ती चित्ती- इस बीमारी से ग्रसित पत्तियों के भीतरी व बाहरी दोनों ही पटलों पर ललाई युक्त भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा पत्तियाँ शीघ्र पीली पड़ जाती हैं|
रोकथाम- यह रोग बोर्डो मिश्रण ओरियोफीन्जन (2.5 मिलीलीटर) जीनेब (0.1 प्रतिशत) या डाइथेन- जेड- 78 (0.2 से 0.3 प्रतिशत) के घोल के छिड़काव से नियन्त्रित किया जा सकता है|
कीट एवं रोकथाम-
उत्तक बेधक- उत्तक बेधक तने को खाकर मृत केन्द्र बना देता है| इस तने के मरने पर जो दूसरे तने विकसित होते है| उनको भी यह कीट खा लेता है|
रोकथाम- जिन पौधों या तनों पर कीट का आक्रमण नजर आता है| उसको नष्ट कर देना चाहिए| प्रभावी नियंत्रण के लिए विशेषज्ञों की सलाह लेवें|
बालदार सूड़ी- यह बहुभक्षीय कीट है, जो कि प्रारम्भिक अवस्था में समूह के रूप में पत्तियों को खाकर नुकसान पहुंचाते है| पूर्ण विकसित सुंडी पत्तियों को खाकर लालीनुमा आकृति शेष छोड़ देती है|
रोकथाम- प्रभावित पत्तियां तोड़कर नष्ट कर देते है और रासायनिक विधि से नियंत्रित करने के लिए एन्डोसल्फान 35 ई सी की 1.5 लीटर या मैलाथियान 50 ई सी की 2 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करते है|
फसल खुदाई
फसल के पकने पर पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं तथा सूख जाती हैं| इस समय धनकंद पूर्ण विकसित हो जाते हैं| अगेती फसल सात माह मध्यम आठ माह पछेती 9 से 10 माह में पक कर तैयार हो जाती है| धनकंद की खुदाई से 4 से 5 दिन पहले हल्की सिंचाई कर देते हैं, जिससे प्रकंद पुंजों को आसानी से खोद कर निकाला जा सके प्रकंद पुंजों को भूमि से निकालने से पूर्व ऊपर की पत्तियाँ काटकर अलग कर देते हैं|तत्पश्चात् प्रकंद भूमि से कुदाली या फावड़ों की सहायता से आराम से निकाल लेते हैं, फिर प्रकंदों को अच्छी तरह से पानी से धो लेते हैं, तत्पश्चात् प्राथमिक (मातृ प्रकंद) व द्वितीयक (फिन्गर्स) प्रकंद अलग कर लेते हैं और विधिपूर्वक उबलने के उपरांत हल्दी बनाकर विपणन कर देना चाहिए|
पैदावार
हल्दी की खेती में में शुद्ध फसल से 300 से 550 क्विंटल और असिंचित क्षेत्रों में 100 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर कच्ची हल्दी प्राप्त हो जाती है| सुखाने के बाद कच्ची हल्दी की यह उपज 15 से 25 प्रतिशत तक होती है|
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