Colocasia esculenta (taro root) अरबी की खेती
Author -मनीष कुमार मीना, कृषि विशेषज्ञ, सहा. कृषि अधिकारी,कृषि विभाग
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अरबी या colocasia को टैरो रूट, जिसे "दशेन, taro root" के रूप में भी जाना जाता है।इसका वानस्पतिक नाम "Colocasia esculenta" है और "Araceae" के परिवार से संबंधित है। अरबी का पौधा 1 मीटर से 2 मीटर तक लंबा होता है। उनकी पत्तियाँ हल्की हरी, लम्बी और दिल के आकार की हाथी के कान जैसी होती हैं। भारत में अरबी के ताजे पत्तों का भी सेवन सब्जी में किया जाता है ।अरबी या टारो रूट का उपयोग पाचन स्वास्थ्य में सहायक,कैंसर की रोकथाम में सहायक,रक्तचाप और हृदय स्वास्थ्य में एड्स, मधुमेह में ,एड्स तथा दृष्टि को बढ़ाने में मदद करता है।
जलवायु-अरबी की फसल को गर्म तथा नम जलवायु और 21 से 27 डिग्री सेल्सियस तापक्रम की आवश्यकता होती हैं| अधिक गर्म व अधिक सूखा मौसम इसकी पैदावार पर विपरित प्रभाव डालता हैं| जहॉ पाले की समस्या होती हैं, वहाँ यह फसल अच्छी पैदावार नहीं देती हैं|
मृदा -अरबी के लिए बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त हैं| इसकी खेती के लिए 5. 5 से 7.0 पी एच मान वाली भूमि उपयुक्त होती हैं| रोपण हेतु खेत तैयार करने के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल एवं दो जुताई कल्टीवेटर से करके पाटा चलाकर मिट्टी को भुरीभुरी बना लेना चाहिए|
किस्मे- इंद्रा अरबी, पंचमुखी, सतमुखी, नरेन्द्र अरबी, श्री किरण, श्री पल्लवी,आज़ाद अरबी प्रमुख किस्मे है।
बुवाई व रोपण - अरबी का रोपण जून से जुलाई (खरीफ फसल) में किया जाता हैं| उत्तरी भारत में इसे फरवरी से मार्च में भी लगाया जाता हैं| सामान्य रूप से 1 हेक्टेयर में रोपण हेतु 15 से 20 क्विटल कंद बीज 20-25 ग्राम के आकार की आवश्यकता होती हैं|
मेड़ विध - इस विधि में खेत में 8 से 10 सेंटीमीटर ऊँची क्यारी बनाई जााती है।लाइन से लाइन की दुुरी 60cm सेंटीमीटर की रखते हुए 45 सेंटीमीटर के अंतराल पर बीजों का रोपण 5 सेंटीमीटर की गहराई पर किया जाता है| इस विधि में रोपण के दो माह बाद निंदाई-गुड़ाई के साथ उर्वरक की बची मात्रा देने के बाद पौधों पर मिट्टी चढाकर बेड को मेडनाली में परिवर्तित करते हैं, यह विधि अरबी की खरीफ फसल के लिये उपयुक्त हैं।
खाद और उवर्रक-उर्वरक नत्रजन 80 से 100 किलोग्राम, फास्फोरस 60 किलोग्राम और पोटाश 80 से 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग लाभप्रद हैं| नत्रजन तथा पोटाश की पहली मात्रा आधार के रूप में रोपण के पूर्व देना चाहिए| रोपण के एक माह नत्रजन की दूसरी मात्रा का प्रयोग निंदाई-गुड़ाई के साथ करना चाहिए| दो माह पश्चात् नत्रजन की तीसरी तथा पोटाश की दूसरी मात्रा को निंदाई-गुड़ाई के साथ देने के बाद पौधों पर मिट्टी चढा देना चाहिए
सिंचाई-सिंचित क्षेत्र में 8 से 10 दिन के अंतराल पर 5 माह तक सिंचाई आवश्यक हैं| खुदाई के एक माह पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए, जिससे नये पत्ते नहीं निकलते हैं तथा फसल पूर्णरूपेण परिपक्व हो जाती हैं|
अंतः सस्य क्रियाएँ-अरबी की अच्छी पैदावार के लिये यह आवश्यक हैं, कि खेत खरपतवारों से मुक्त रहे और मिट्टी सख्त न होने पाये इस हेतु रोपण के बाद कुल तीन निंदाई-गुडाई (30,60,90 दिन बाद) की आवश्यकता होती हैं, 60 दिन वाली गुडाई के साथ मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए । कंद हमेशा मिट्टी से ढके रहे| अरबी की फसल में प्रति पौधा अधिकतम तीन स्वस्थ पर्णवृन्तों को छोड़ बाकी अन्य निकलने वाले पर्णवृन्तों की कटाई करते रहना चाहिए, इससे कंदों के आकार में वृद्धि होती हैं|
कीट एवं रोकथाम-
1.तम्बाकू की इल्ली- इसकी इल्लियाँ पत्तियों के हरित भाग को चटकर जाती हैं, जिससे पत्तियों की शिराएँ दिखने लगती हैं तथा धीरे-धीरे पूरी पत्ती सूख जाती हैं|रोकथाम- क्विनालफॉस 25 ई सी 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या प्रोफेनोफॉस 3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए|
एफिड (माहू) एवं थ्रिप्स- एफिड एफिड (माहू) एवं थ्रिप्स पत्तियों का रस कर नुकसान पहुंचाते है, जिससे पत्तियों पीली पड़ जाती हैं| पत्तियों पर छोटे काले धब्बे दिखाई देते हैं, अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां सूख जाती हैं|रोकथाम-क्विनालफॉस या डाइमेथियोट के 0.05 प्रतिशत घोल का 7 दिन के अंतराल पर दो से तीन छिडकाव कर रस चूसने वाले कीटों को नियंत्रित किया जा सकता हैं|
रोग एवं रोकथाम-
लीफ ब्लाइट (पत्ती अंगमारी)- यह रोग फाइटोफथोरा कोलाकेसी नामक फफूंदी के कारण होता है| इस रोग में पत्तियों पर छोटे-छोटे गोल या अण्डाकार भूरे रंग के धब्बे पैदा होते है| जो धीरे-धीरे फैल जाते हैं, बाद में डण्ठल भी रोग ग्रस्त हो जाता हैं और एवं पत्तियों गलकर गिरने लगती हैं तथा कंद सिकुड़ कर छोटे हो जाते हैं|रोकथाम- अरबी कंद को बोने से पूर्व रिडोमिल एम जेड- 72 से उपचारित करें| खड़ी फसल में रोग की प्रारम्भिक अवस्था में रिडोमिल एम जेड- 72 की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करें|
सर्कोस्पोरा पर्ण चित्ती (पत्ती धब्बा)- इस रोग से पत्तियों पर छोटे वृताकार धब्बे बनते हैं| जिनके किनारे पर गहरा बैंगनी और मध्य भाग राख के समान होता हैं| परन्तु रोग की उग्र अवस्था में यहधब्बे मिलकर बडे धब्बे बनते हैं, जिससे पत्तियॉ सिकुड़ जाती हैं और फलस्वरूप पत्तियॉ झुलसकर गिर जाती हैं|
रोकथाम- रोग की प्रारम्भिक अवस्था में मेंकोजेब 0.3 प्रतिशत का छिडकाव करें और क्लोरोथेलोनिल की 0.2 प्रतिशत मात्रा का छिडकाव करें|
फसल की खुदाई-
अरबी की वर्षा आधारित फसल 150 से 175 दिन तथा सिंचित अवस्था की फसल 175 से 225 दिनों में तैयार हो जाती हैं| जब पत्तियॉ छोटी हो जाए तथा पीली पड़कर सूखने लगे तब की जाती हैं|
पैदावार-अरबी की उन्नत तरीके से खेती करने पर सामान्य अवस्था में अरबी से किस्म 20 से 24 टन वर्षा ऋतु वाली तथा सिंचित अवस्था की फसल में 30 से 35 टन प्रति हेक्टेयर कंद पैदावार प्राप्त होती हैं| एक हेक्टेयर से 8 से 11 टन हरी पत्तियों की पैदावार होती हैं|
भंडारण- अरबी के कंदों को 1 से 2 महीने तक सामान्य तापक्रम पर हवादार भण्डार गृह में भण्डारित किया जा सकता हैं|
Author -मनीष कुमार मीना, कृषि विशेषज्ञ, सहा. कृषि अधिकारी,कृषि विभाग
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अरबी या colocasia को टैरो रूट, जिसे "दशेन, taro root" के रूप में भी जाना जाता है।इसका वानस्पतिक नाम "Colocasia esculenta" है और "Araceae" के परिवार से संबंधित है। अरबी का पौधा 1 मीटर से 2 मीटर तक लंबा होता है। उनकी पत्तियाँ हल्की हरी, लम्बी और दिल के आकार की हाथी के कान जैसी होती हैं। भारत में अरबी के ताजे पत्तों का भी सेवन सब्जी में किया जाता है ।अरबी या टारो रूट का उपयोग पाचन स्वास्थ्य में सहायक,कैंसर की रोकथाम में सहायक,रक्तचाप और हृदय स्वास्थ्य में एड्स, मधुमेह में ,एड्स तथा दृष्टि को बढ़ाने में मदद करता है।
जलवायु-अरबी की फसल को गर्म तथा नम जलवायु और 21 से 27 डिग्री सेल्सियस तापक्रम की आवश्यकता होती हैं| अधिक गर्म व अधिक सूखा मौसम इसकी पैदावार पर विपरित प्रभाव डालता हैं| जहॉ पाले की समस्या होती हैं, वहाँ यह फसल अच्छी पैदावार नहीं देती हैं|
मृदा -अरबी के लिए बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त हैं| इसकी खेती के लिए 5. 5 से 7.0 पी एच मान वाली भूमि उपयुक्त होती हैं| रोपण हेतु खेत तैयार करने के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल एवं दो जुताई कल्टीवेटर से करके पाटा चलाकर मिट्टी को भुरीभुरी बना लेना चाहिए|
किस्मे- इंद्रा अरबी, पंचमुखी, सतमुखी, नरेन्द्र अरबी, श्री किरण, श्री पल्लवी,आज़ाद अरबी प्रमुख किस्मे है।
बुवाई व रोपण - अरबी का रोपण जून से जुलाई (खरीफ फसल) में किया जाता हैं| उत्तरी भारत में इसे फरवरी से मार्च में भी लगाया जाता हैं| सामान्य रूप से 1 हेक्टेयर में रोपण हेतु 15 से 20 क्विटल कंद बीज 20-25 ग्राम के आकार की आवश्यकता होती हैं|
मेड़ विध - इस विधि में खेत में 8 से 10 सेंटीमीटर ऊँची क्यारी बनाई जााती है।लाइन से लाइन की दुुरी 60cm सेंटीमीटर की रखते हुए 45 सेंटीमीटर के अंतराल पर बीजों का रोपण 5 सेंटीमीटर की गहराई पर किया जाता है| इस विधि में रोपण के दो माह बाद निंदाई-गुड़ाई के साथ उर्वरक की बची मात्रा देने के बाद पौधों पर मिट्टी चढाकर बेड को मेडनाली में परिवर्तित करते हैं, यह विधि अरबी की खरीफ फसल के लिये उपयुक्त हैं।
खाद और उवर्रक-उर्वरक नत्रजन 80 से 100 किलोग्राम, फास्फोरस 60 किलोग्राम और पोटाश 80 से 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग लाभप्रद हैं| नत्रजन तथा पोटाश की पहली मात्रा आधार के रूप में रोपण के पूर्व देना चाहिए| रोपण के एक माह नत्रजन की दूसरी मात्रा का प्रयोग निंदाई-गुड़ाई के साथ करना चाहिए| दो माह पश्चात् नत्रजन की तीसरी तथा पोटाश की दूसरी मात्रा को निंदाई-गुड़ाई के साथ देने के बाद पौधों पर मिट्टी चढा देना चाहिए
सिंचाई-सिंचित क्षेत्र में 8 से 10 दिन के अंतराल पर 5 माह तक सिंचाई आवश्यक हैं| खुदाई के एक माह पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए, जिससे नये पत्ते नहीं निकलते हैं तथा फसल पूर्णरूपेण परिपक्व हो जाती हैं|
अंतः सस्य क्रियाएँ-अरबी की अच्छी पैदावार के लिये यह आवश्यक हैं, कि खेत खरपतवारों से मुक्त रहे और मिट्टी सख्त न होने पाये इस हेतु रोपण के बाद कुल तीन निंदाई-गुडाई (30,60,90 दिन बाद) की आवश्यकता होती हैं, 60 दिन वाली गुडाई के साथ मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए । कंद हमेशा मिट्टी से ढके रहे| अरबी की फसल में प्रति पौधा अधिकतम तीन स्वस्थ पर्णवृन्तों को छोड़ बाकी अन्य निकलने वाले पर्णवृन्तों की कटाई करते रहना चाहिए, इससे कंदों के आकार में वृद्धि होती हैं|
कीट एवं रोकथाम-
1.तम्बाकू की इल्ली- इसकी इल्लियाँ पत्तियों के हरित भाग को चटकर जाती हैं, जिससे पत्तियों की शिराएँ दिखने लगती हैं तथा धीरे-धीरे पूरी पत्ती सूख जाती हैं|रोकथाम- क्विनालफॉस 25 ई सी 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या प्रोफेनोफॉस 3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए|
एफिड (माहू) एवं थ्रिप्स- एफिड एफिड (माहू) एवं थ्रिप्स पत्तियों का रस कर नुकसान पहुंचाते है, जिससे पत्तियों पीली पड़ जाती हैं| पत्तियों पर छोटे काले धब्बे दिखाई देते हैं, अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां सूख जाती हैं|रोकथाम-क्विनालफॉस या डाइमेथियोट के 0.05 प्रतिशत घोल का 7 दिन के अंतराल पर दो से तीन छिडकाव कर रस चूसने वाले कीटों को नियंत्रित किया जा सकता हैं|
रोग एवं रोकथाम-
लीफ ब्लाइट (पत्ती अंगमारी)- यह रोग फाइटोफथोरा कोलाकेसी नामक फफूंदी के कारण होता है| इस रोग में पत्तियों पर छोटे-छोटे गोल या अण्डाकार भूरे रंग के धब्बे पैदा होते है| जो धीरे-धीरे फैल जाते हैं, बाद में डण्ठल भी रोग ग्रस्त हो जाता हैं और एवं पत्तियों गलकर गिरने लगती हैं तथा कंद सिकुड़ कर छोटे हो जाते हैं|रोकथाम- अरबी कंद को बोने से पूर्व रिडोमिल एम जेड- 72 से उपचारित करें| खड़ी फसल में रोग की प्रारम्भिक अवस्था में रिडोमिल एम जेड- 72 की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करें|
सर्कोस्पोरा पर्ण चित्ती (पत्ती धब्बा)- इस रोग से पत्तियों पर छोटे वृताकार धब्बे बनते हैं| जिनके किनारे पर गहरा बैंगनी और मध्य भाग राख के समान होता हैं| परन्तु रोग की उग्र अवस्था में यहधब्बे मिलकर बडे धब्बे बनते हैं, जिससे पत्तियॉ सिकुड़ जाती हैं और फलस्वरूप पत्तियॉ झुलसकर गिर जाती हैं|
रोकथाम- रोग की प्रारम्भिक अवस्था में मेंकोजेब 0.3 प्रतिशत का छिडकाव करें और क्लोरोथेलोनिल की 0.2 प्रतिशत मात्रा का छिडकाव करें|
फसल की खुदाई-
अरबी की वर्षा आधारित फसल 150 से 175 दिन तथा सिंचित अवस्था की फसल 175 से 225 दिनों में तैयार हो जाती हैं| जब पत्तियॉ छोटी हो जाए तथा पीली पड़कर सूखने लगे तब की जाती हैं|
पैदावार-अरबी की उन्नत तरीके से खेती करने पर सामान्य अवस्था में अरबी से किस्म 20 से 24 टन वर्षा ऋतु वाली तथा सिंचित अवस्था की फसल में 30 से 35 टन प्रति हेक्टेयर कंद पैदावार प्राप्त होती हैं| एक हेक्टेयर से 8 से 11 टन हरी पत्तियों की पैदावार होती हैं|
भंडारण- अरबी के कंदों को 1 से 2 महीने तक सामान्य तापक्रम पर हवादार भण्डार गृह में भण्डारित किया जा सकता हैं|
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