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आलू की वैज्ञानिक खेती करके पाये अधिक पैदावार

 आलू की वैज्ञानिक खेती करके पाये अधिक पैदावार

लेखक-मनीष कुमार मीना, सहायक कृषि अधिकारी, बिजौली, धौलपुर

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आलू भारत की सबसे महत्वपूर्ण फसल। आलू एक ऐसी फसल है जिससे प्रति इकाई क्षेत्रफल में अन्य फसलों (गेहूँ, धान एवं मूँगफली) की अपेक्षा अधिक उत्पादन मिलता है तथा प्रति हेक्टर आय भी अधिक मिलती है

धौलपुर जिले के किसानों को आलू की खेती रास रही है।  गेहूं और सरसों के मुकाबले अच्छे दाम मिलने के कारण आलू की खेती का रकबा तेजी से बढ़ रहा है।धौलपुर में आलू के भाव अच्छे मिलने के कारण किसान अन्य फसलों के बजाए अब आलू की खेती की ओर अग्रसर हो रहे हैं। खरीफ की फसलें 

लगभग कट चुकी है और रबी की फसलों की बुवाई के लिए धौलपुर जिले मे बाड़ी तहसील के आलू उत्पादकों ने आलू की बुवाई हेतु खेत तैयार करना शुरू कर दिया है।

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आइये जानते है आलू की उन्नत खेती से अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए किसान भाइयों को आलू की उत्पादन तकनीक के बारे जानकारी होनी चाहिए।

भूमि एवं जलवायु संबंधी आवश्यकताएं - आलू की खेती के लिए जीवांश युक्त बलुई -दोमट मिटटी ही अच्छी होती हैं। भूमि में जल निकासी की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। आलू के लिए क्षारीय तथा जल भराव अथवा खड़े पानी वाली भूमि कभी ना चुने। बढ़वार के समय आलू को मध्यम शीत की आवश्यकता होती है।

खेत की तैयारी- 3-4 जुताई डिस्क हैरो या कल्टीवेटर से करें। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाने से ढेले टूट जाते हैं तथा नमी सुरक्षित रहती है। वर्तमान में रोटावेटर से भी खेत की तैयारी शीघ्र व अच्छी हो जाती है। आलू की अच्छी फसल के लिए बोने से पहले पलेवा करना चाहिए।



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किस्मे-: कुफरी पुखराज, 37-97, कुफरी जवाहर, सतलज, आनंद किस्म के आलू की पैदावार होती है। धौलपुर में सबसे अधिक 37-97 वैरायटी के आलू की बुआई होती है। 

बीज की बुआई- उत्तर-पश्चिमी भागों मे आलू की बुआई का उपयुक्त समय अक्तूबर माह प्रथम पखवाड़ा है। यदि भूमि में पर्याप्त नमी न हो तो, पलेवा करना आवश्यक होता है। बीज आकार के आलू कन्दों को कूडों में बोया जाता है तथा निट्टी से ढककर हल्की मेंड़ें बना दी जाती है। आलू की बुआई पोटेटो प्लान्टर से करने से  समय, श्रम व धनकी बचत की जा सकती है।



आलू के बीज लगाने संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी-

प्रामाणिक रोग-मुक्त आलू के बीज का प्रयोग करे।

ज्यादातर आलू के बीज वाले कंदों का व्यास 45-60 मिमी होता है।

इन्हें छोटे टुकड़ों में काटने की जरुरत पड़ सकती है (जिसे अक्सर “सेट” कहा जाता है)। 28-35 मिमी वाले कंदों को सामान्य तौर पर काटने की जरुरत नहीं होती और उन्हें पूरा लगाया जा सकता है।


बुआई की विधि : इसके लिए 25 से 30 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है। पौधों में कम फासला रखने से रोशनी,पानी और पोषक तत्वों के लिए उनमें होड बढ जाती है फलस्वपरूप छोटे आकार के आलू पैदा होते हैं। अधिक फासला रखने से प्रति हैक्टेयर में पौधो की संख्या  कम हो जाती है जिससे आलू का आकार तो बढ जाता है परन्तुल उपज घट जाती है। इसलिए कतारों और पौधो की दूरी में ऐसा संतुलन बनाना होता है कि न उपज कम हो और न 

आलू का आकार कम हो। उचित माप के बीज के लिए पंक्तियों मे 50 से.मी. का अन्तलर व पौधों में 20 से 25 से.मी. की दूरी रखनी चाहिए।

उर्वकों का प्रयोग:

फसल में प्रमुख तत्व अर्थात नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश पर्याप्त मात्रा में डालें। नत्रजन से फसल की वानस्पतिक बढवार अधिक होती है और पौधे के कंदमूल के आकार में भी वृद्धि होती है परन्तु उपज की वृद्धि में कंदमूल के अलावा उनकी संख्या का अधिक प्रभाव पडता है। फसल के आरम्भिक विकास और वानस्पतिक भागों को शक्तिशाली बनाने में पोटाश सहायक होता है। इससे कंद के आकार व संख्या मे बढोतरी होती है। आलू की फसल में प्रति हैक्टेयर 120 कि.ग्रा. नत्रजन, 80 कि.ग्रा. फास्फोरस और 80 कि.ग्रा. पोटाश डालनी चाहिए। उर्वरकों की मात्राा मिट्टी की जांच के आधार पर निर्धारित करते है। बुआई के समय नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा डालनी चाहिए।नत्रजन की शेष आधी मात्रा पौधों की लम्बाई 15 से 20 से.मी. होने पर पहली मिट्टी चढाते समय देनी चाहिए। 

आलू में सिंचाई प्रबंधन :

 पहली सिंचाई अधिकांश पौधे उगजाने के बाद करें व दूसरी सिंचाई उसके 15 दिन बाद आलू बनने व फूलने की अवस्था में करनी चाहिए। कंदमूल बनने व फूलने के समय पानी की कमी का उपज पर बुरा प्रभाव पडता है। इन अवस्थाओं में पानी 10 से 12 दिन के अन्तर पर दिया जाना चाहिये । पूर्वी भारत में अक्तूबर के मध्य से जनवरी तक बोई जाने वाली आलू की फसल मे सिंचाई की उपयुक्त मात्रा 50 से.मी. ( 6 से 7 सिंचाइयॉ) होती है। 

आलू में खरपतवारों की रोकथाम :आलू की फसल में कभी भी खरपतवार न उगने दें। खरपतवार की प्रभावशाली रोकथाम के लिए बुआई के 7 दिनों के अन्दर, 0.5 किलोग्राम सिमैजिन 50 डब्ल्‍यू.पी. (SEMAZIN 50 w.p.) या Linuron) का 700 लिटर पानी मे घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर के हिसाब से छिडकाव कर दें। 

आलू कटाई या खुदाई: पूरी तरह से पकी आलू की फसल की कटाई उस समय करनी चाहिए जब आलू के कन्दो के छिलके सख्त पड जायें। पूर्णतया पकी एवं अच्छी फसल से लगभग 300-350 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज प्राप्त होती है। 

कीट व रोग प्रबंधन,-

बुआई के समय सफैद गिडार, कटवर्म व अन्य भूमिगत कीटों तथा लाही के नियंत्रण के लिए फोरेट (10 गाजी) या डर्सवान (10 जी) या केलडान (4 जी) की 10 किलोग्राम या कार्बोफ्यूरान (3 जी) की 25 कि॰ ग्रा॰ प्रति हेक्टेयर की दर से मेड़ बनाते समय मिट्‌टी में अच्छी तरह मीला दें ।

(आ) फसल वृद्धि/बढ़वार के समय फूदका जैसिड एवं ऐपीलकना वीट्‌ल के नियंत्रण के लिए फेनीट्रोथियान (50 ई० सी०) 1.5 मि०ली०/लीटर पानी की दर से मेंड़ों पर छिड़काव करें ।

(इ) फसल वृद्धि/वढवार के समय कटवर्म एवं सफेद गिडार के नियंत्रण हेतु क्लोरपायरीफोस (20 ई०सी०) 2 मि०ली०/लीटर पानी की दर से घोल बनाकर भेड़ों पर छिड़काव करें ।

(ई) कन्द बनने की प्रारम्भिक अवस्था में सफेद गिडार व सूत्रकृमि के नियंत्रण हेतु 10 कि०ग्रा० फोरेट (10 जी०) या 25 कि०ग्रा० कार्बोफ्यूरान (3जी) का प्रयोग मेंड़ों की मिट्‌टी में करें ।

रोग नियंत्रण के उपाय:

(i) 1.अगेती अंगमारी या Early Blight)

यह रोंग फफूंद की वजह से होता है। इस रोग के प्रमुख लक्षण नीचे की पत्तियों पर हल्के भरे रंग के छोटे- छोटे पूरी तरह बिखरे हुए धब्बों से होता हैं। जो अनुकूल मौंसम पाकर पत्तियों पर फैलने लगते है। जिससे पत्तियॉ नष्ट हो जाती है । इस बिमारी के लक्षण आलू मे भी दिखते हैं भूरे रंग के धब्बें जो बाद मे फैंल जाते हैं जिससे आलू खाने योग्य नही रहता है। 

झुलसा का नियंत्रण हेतु मेंकोंजेब (75 डब्लू० पी०) या डायथन जेड- 78 की 25 ग्राम/लीटर पानी की मात्रा जबकि (लीफ स्पॉट) पत्ती पर काले धब्बे पड़ने वाले रोग का नियंत्रण पाने के लिए कॉपर ऑक्सीक्लाराइड (50 डब्लू० पी०) की 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की मात्रा या क्लासेथैलानिल (50 डब्लू० पी०) की 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की मात्रा का प्रयोग कर ।

 2.आलू का पछेती अंगमारी रोंग (Late Blight)

यह रोंग फफूंद की वजह से होता है। रोग के लक्षण सबसे पहले निचे की पत्तियों पर हल्कें हरे रंग के धब्बें दिखई देतें है जो जल्द ही भूरे रंग के हो जाते हैं। यह धब्बें अनियमित आकार के बनते हैं। जो अनुकूल मौसम पाकर बड़ी तीव्रता से फैलते हैं औंर पत्तियों को नश्ट कर देतें है। रोग की विशेश पहचान पत्तियों के किनारें और चोटी भाग का भूरा होकर झुलस जाना हैं। इस रोग के लक्षण कंदो पर भी दिखइ पड़ता है। जिससे उनका विगलन होने लगता हैं।

ii) पिछेती झूलसा रोग आगमन से पूर्व संरक्षी प्रोटेक्टेन फफूँदनाशक जैसे कॉपर ऑक्सीक्लीराइड मेंकीजेब क्लोरोथेलोनिल प्रोपीनेव आदि का छिड़काव प्रभावी है ।

(iii) पिछेती झुलसा रोग ही जाने या मौसम, पिछेती झुलसा रोग फैलने के अनुकूल अर्थात् आकाश बादलों से घिरा ही तथा रूक-रूक कर वर्षा ही रही हो तो मैटालैक्सिल 8 प्रतिशत + मेंकौंजब 64 प्रतिशत की 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर फसलों पर छिड़काव करना चाहिए । यदि मौसम अनुकूल हो तो प्रत्येक 7 – 10 दिनों के अन्तराल पर मेंकोजब या प्रोपीनेव (2.5 ग्रा०/लीटर पानी) का छिडकाव कर ।

चूहा नियंत्रण के उपाय:

खेत में या खेत के मेढ़ी में चूहे का बिल या सुरंग दिखाई दे तो प्रत्येक बिल में सेलफास की गोली डाल कर बिल का अच्छी तरह से बंद कर दें अथवा जिंक फास्फाइड को गेहूँ के आटा या सत्तू में मिलाकर ( 1 : 10) बिल में प्रयोग करें ।

अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क करें- नजदीकी कृषि कार्यालय



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3 Comments

  1. Dear pl suggest any treatment for late or early blight in potato becos it's a very wast problem for potato farmers

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  2. Most of the farmers of your circle is also used potato tuber treatment for protecting their crop from scab as well as scurf pl do suggest any treatment for above mantion disease .
    It's very helpful to potato farmers

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